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न्यासः- सर्वप्रथम श्रीगणेश जी तथा भगवान
नारायण को नमस्कार करके नीचे लिखे प्रकार
से न्यास करें।
अगं-न्यासः-
ॐ ॐ नमः – पादयोः (दाहिने हाँथ की तर्जनी
व अंगुठा – इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों
का स्पर्श करें)।
ॐ नं नमः – जानुनोः ( दाहिने हाँथ की
तर्जनी व अंगुठा – इन दोनों को मिलाकर
दोनों घुटनों का स्पर्श करें )
ॐ माँ नमः – ऊर्वोः (दाहिने हाथ की तर्जनी
अंगुठा - इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों की
जाँघ का स्पर्श करें)।
ॐ नां नमः – उदरे (दाहिने हाथ की तर्जनी
तथा अंगुठा इन दोनों को मिलाकर पेट का
स्पर्श करे)
ॐ रां नमः – हृदि (मध्यमा अनामिका तर्जनी
से हृदय का स्पर्श करें)
ॐ यं नमः - उरसि (मध्यमा अनामिका-
तर्जनी से छाती का स्पर्श करे)
णां नमः – मुखे (तर्जनी अंगुठे के
संयोग से मुख का स्पर्श करे)
ॐ यं नमः - शिरसि ( तर्जनी -मध्यमा के
संयोग से सिर का स्पर्श करे )
कर-न्यास:-
ॐ ॐ नमः – दक्षिणतर्जन्याम् ( दाहिने
अँगुठे से दाहिने तर्जनी के सिरे का स्पर्श करे)
ॐ नं नमः दक्षिणमध्यमायाम् (दाहिने अंगुठे
से दाहिने हाथ की मध्यमा अंगुली का ऊपर
वाला पोर स्पर्श करे)
ॐ माँ नमः – दक्षिणानामिकायाम् (दहिने
अँगुठे से दाहिने हाथ की अनामिका का
ऊपरवाला पोर स्पर्श करे)
ॐ अं नमः दक्षिणकनिष्ठिकायाम् (दाहिने
अंगुठे से हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला
पोर स्पर्श करे)
ॐ गं नमः
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- वामकनिष्ठिकायाम् (बाँये अंगुठे
से बाँये हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला
पोर स्पर्श करे)
ॐ वं नमः –वामानिकायाम् (बाँये अँगुठे से
बाँये हाँथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर
स्पर्श करे)
ॐ तें नमः – वाममध्यमायाम् ( बाँये अंगुठे
से बाये हाथ की मध्यमा का ऊपरवाला पोर
स्पर्श करे)
ॐ वां नमः – वामतर्जन्याम् (बॉये अंगुठे से
बाँये हाथ की तर्जनी का ऊपरवाला पोर स्पर्श
करे)
ॐ सुं नमः – दक्षिणाङ्गुष्ठोध्र्वपर्वणि ( दाहिने
हाथ की चारों अंगुलियों से दाहिने हाथ के
अँगुठे का ऊपरवाला पोर छुए)
ॐ दें नमः – दक्षिणाङ्गुष्ठाधः पर्वणि (दाहिने
हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के
अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए)
अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए)
ॐ वां नमः -वामाङ्गुष्ठोधर्वपर्वणि (बॉये
हाथ की चारों अंगुलियों से बाँये अँगुठे के
ऊपरवाला पोर छुए)
ॐ यं नमः
वामाङ्गुष्ठाधः पर्वणि (बॉये
हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये हाथ के अँगुठे
का नीचे वाला पोर छुए)
विष्णुषडक्षरन्यासः-
ॐ ॐ नमः – हृदये ( तर्जनी- मध्यमा एवं
अनामिका से हृदय का स्पर्श करे )
ॐ विं नमः मूर्ध्नि ( तर्जनी मध्यमा के
संयोग सिर का स्पर्श करे )
ॐ षं नमः भुर्वोर्मध्ये (तर्जनी-मध्यमा से
दोनों भौंहों का स्पर्श करे)
ॐ णं नमः –शिखायाम् (अँगुठे से शिखा का
स्पर्श करे)
ॐ वें नमः नेत्रयोः (तर्जनीमध्यमा से
दोनों नेत्रों का स्पर्श करे)
ॐ नं नमः सर्वसन्धिषु (तर्जनी- मध्यमा
और अनामिका से शरीर के सभी जोड़ों जैसे
-कंधा, घुटना, कोहनी आदि का स्पर्श करे )
ॐ मः अस्त्राय फट् प्राध्याम् (पूर्व की ओर
चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् आग्नेय्याम् (अग्निकोण
में चुटकी बजायें)
ॐ मः अस्त्राय फट् – दक्षिणस्याम् (दक्षिण
की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् नैऋत्ये (नैऋत्य कोण
में चुटकी बजाएँ)
ॐ मः अस्त्राय फट् प्रतीच्याम् ( पश्चिम की
ओर चुटकी बजाएँ)
ॐ मः अस्त्राय फट् वायव्ये ( वायुकोण में
चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् - उदीच्याम् ( उत्तर की
ओर चुटकी बजाएँ)
ॐ मः अस्त्राय फट् – ऐशान्याम् (ईशानकोण
में चुटकी बजाएँ)
ॐ मः अस्त्राय फट् – ऊर्ध्वायाम् ( ऊपर की
ओर चुटकी बजाएँ)
ॐ मः अस्त्राय फट् – अधरायाम् (नीचे की
ओर चुटकी बजाएँ)
अथ श्रीनारायणकवच
। राजोवाच ।।
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे
श्रियम् ||१
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भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाततायिनः शत्रून् येन गुप्तोऽजयन्मृधे ||२
राजा परिक्षित ने पूछाः भगवन् | देवराज इंद्र
ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की
चतुरङ्गिणी सेना को खेल-खेल में अनायास ही
• जीतकर त्रिलोकी की राज लक्ष्मी का उपभोग
किया, आप उस नारायण कवच को सुनाइये
और यह भी बतलाईये कि उन्होंने उससे
सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार
आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की 11१-
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।। श्रीशुक उवाच ।।
वृतः पुरोहितोस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु।।३
श्रीशुकदेवजी ने कहाः परीक्षित् | जब देवताओं
ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज
इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने नारायण
कवच का उपदेश दिया तुम एकाग्रचित्त से
उसका श्रवण करो ॥३
विश्वरूप उवाचधताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र
उदड़ मुखः ।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः
शुचिः ।।४
नारायण कवच का पाठ कैसे करें
नारायणमयं वर्म संनयेद् भय आगते ।
पादयोर्जानुनोरूवरूदरे हृदययोरसि ।।५
मुखे शिरस्यानुपूर्व्वादोंकारादीनि विन्यसेत् ।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा।।६
विश्वरूप ने कहा- देवराज इन्द्र भय का
अवसर उपस्थित होने पर नारायण कवच धारण
करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिए
उसकी विधि यह है कि पहले हाँथ-पैर धोकर
आचमन करे, फिर हाथ में कुश की पवित्री
धारण करके उत्तर मुख करके बैठ जाय इसके
बाद कवच धारण पर्यंत और कुछ न बोलने का
निश्चय करके पवित्रता से "ॐ नमो
नारायणाय" और "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इन मंत्रों के द्वारा हृदयादि अड्गन्यास तथा
अङ्गुष्ठादि करन्यास करे पहले "ॐ नमो
नारायणाय" इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि
आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट,
हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करे
अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ॐ
कार तक आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ कर
उन्हीं आठ अगों में विपरित क्रम से न्यास
करे 11४-६
करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया ।
प्रणवादियकारन्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु ।।७
तदनन्तर "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" इस
द्वादशाक्षर -मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का
दायीं तर्जनी से बाँयी तर्जनी तक दोनों हाँथ
की आठ अंगुलियों और दोनों अँगुठों की दो-दो
गाठों में न्यास करे
न्यसेद् हृदय ओड्कारं विकारमनु मूर्धनि ।
कारं तु भुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत् ।।८
वेकार नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकार सर्वसन्धिषु ।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः ।।९
सविसर्ग फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत् ।
ॐ विष्णवे नम इति ।।१०
फिर "ॐ विष्णवे नमः" इस मन्त्र के पहले के
पहले अक्षर 'ॐ' का हृदय में, 'वि' का
ब्रहमरन्ध में 'ष' का भौहों के बीच में, 'ण' का
चोटी में, 'वे' का दोनों नेत्रों और 'न' का शरीर
की सब गाँठों में न्यास करे तदनन्तर ॐ मः
अस्त्राय फट्' कहकर दिग्बन्ध करे इस प्रकर
न्यास करने से इस विधि को जानने वाला
पुरुष मन्त्रमय हो जाता है ।।८-१०
आत्मानं परमं ध्यायेद ध्येयं षट्शक्तिमिर्युतम्
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत ||११
इसके बाद समय ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान
और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का
ध्यान करे और अपने को भी तद् रूप ही
चिन्तन करे तत्पश्चात् विद्या, तेज, और तपः
स्वरूप इस कवच का पाठ करे ||११